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बिहार की राजनीति में “माय” समीकरण कितना प्रभावी? जाती और धर्म के आधार पर कौन सी पार्टी ताकतवर

by Rakesh Pandey
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बिहार में जातीय समीकरण का बनना नई बात नहीं है। बिहार की राजनीति में “माय” समीकरण का भी काफी प्रभाव है। इस समीकरण के तहत, यादव और मुस्लिम समुदायों को एक साथ जोड़कर एक मजबूत वोट बैंक बनाया जाता है। यादव समाज बिहार की आबादी का लगभग 16% है, जबकि मुस्लिम समुदाय लगभग 17% है। इन दोनों समुदायों को एक साथ जोड़ने से बिहार में लगभग 33% वोट बैंक तैयार हो जाता है।

जातीय और धार्मिक आधार पर बिहार में समीकरण

बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावशाली समुदायों में से एक यादव समुदाय है। यादव समुदाय के नेता लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव बिहार की राजनीति में लंबे समय से सक्रिय हैं। बिहार की आबादी में मुस्लिम समुदाय का एक महत्वपूर्ण स्थान है। मुस्लिम समुदाय के नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन और अब्दुल बारी सिद्दीकी बिहार की राजनीति में काफी योगदान दिया है। साथ ही ईसाई समुदाय के साथ बिहार में अन्य समाज में ब्राह्मण, कायस्थ, भूमिहार, कुशवाहा, बिंद, पासवान, आदि शामिल हैं।

बिहार में जातीय समीकरण़

बिहार में जातीय समीकरण राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, और यह बिहार की राजनीति में दशकों से प्रमुख भूमिका निभाता आ रहा है। इसका प्रारंभी उदाहरण है राष्ट्रीय जनता दल का एमवाई (माय) समीकरण के कारण सीएम नीतीश कुमार ने लव-कुश समीकरण को बनाया, जिसके तहत वे दो दशक तक मुख्य मंत्री रहे हैं। पिछले कुछ महीने में राष्ट्रीय जनता दल ने छोटे-छोटे पॉकेट्स को भरने की तरफ ध्यान दिया है। पार्टी ने कुछ दिन पहले साहू सम्मेलन का आयोजन किया था। उसके बाद राष्ट्रीय जनता दल की तरफ से आदिवासी सम्मेलन का भी आयोजन किया गया था।

माय समीकरण कितना प्रभावी?

बिहार में मुस्लिम और यादव वोटरों की अच्छी खासी तादाद है। राज्य के लोकसभा सीटों पर माय समीकरण वोटर निर्णायक भूमिका में हैं। ऐसे में यह समीकरण राज्य की राजनीति पर बेहद प्रभाव डालते हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां या गठबंधन इनके वोट के समर्थन का प्रयास करती है। मुस्लिम मतदाताओं की वोट का रुख पर बहुत कुछ निर्भर करता है। राजद मुस्लिम-यादव यानी माय (M-Y) समीकरण की रणनीति के तहत मुस्लिम वोट का झुकाव अपने पक्ष में होने का दावा करती आई है, तो कांग्रेस और जदयू भी यादव और मुस्लिम वोट पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश करती है।

अति पिछड़े वोट बैंक के दम पर सरकार

सत्ता के गलियारे में यह बात भी कही जाता है कि अति पिछड़े वोट बैंक के दम पर ही नीतीश कुमार इतने सालों से राज कर रहे हैं। हाल में पार्टी ने अति पिछड़ा समाज की बैठक का भी आयोजन किया जिसके माध्यम से वे बिहार के मतदाताओं के बीच एक मजबूत संदेश पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। यह समीकरण राजनीति में गहरे चुनौती देता है क्योंकि यह समुदायों के आपसी समझौते की ओर इशारा करता है, जिससे उन्हें चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका मिलती है। इसके अलावा, यह समीकरण बिहार की राजनीति को सामाजिक और सांस्कृतिक मामूलों के साथ प्रभावित कर सकता है, जिससे चुनाव प्रचार में इन समुदायों का विशेष ध्यान दिया जाता है।

बिहार की राजनीति में 60 सीटों पर मुस्लिम वोटर का रोल

बिहार में लगभग 17% मुस्लिम वोटर हैं जिसे बिहार की राजनीति में अहम हिस्सा माना जाता है। बिहार की 243 सीटों में, लगभग 60 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विशेषज्ञ चुनावी रणनीतिकारों के अनुसार, इन सीटों पर मुस्लिम वोट के आधार पर ही उम्मीदवारों का चयन किया जाता है।

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लोकसभा और विधानसभा चुनाव उम्मीदवार बनते है मुस्लिम प्रतिनिधि

बिहार विधानसभा चुनाव में, मुस्लिम प्रतिनिधि की बढ़ती तस्वीर देखने को मिली है। 2015 में, 24 मुस्लिम उम्मीदवारों ने विधानसभा की सीटें जीती, जबकि 2010 में 19 मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत हासिल की। 2005 के चुनाव में भी 16 मुस्लिम उम्मीदवारों को जीत मिली थी। लोकसभा चुनावों में भी मुस्लिम मतदाता का महत्वपूर्ण योगदान है, खासकर 9 लोकसभा क्षेत्रों में जहां मुस्लिम मतदाता की संख्या 20% से अधिक है। इसके परिणामस्वरूप, राज के कई लोकसभा सीटों पर मुस्लिम वोट का महत्वपूर्ण रोल होता है, और उम्मीदवारों के चयन में इसके महत्व को देखते हुए निर्णय लिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां और गठबंधन मुस्लिम वोट के समर्थन के लिए कड़ी मेहनत करती हैं, और उनके प्रति विशेष ध्यान देती हैं।

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