फन्ने गुरु अमरत्व की डुबकी लगाकर बस टटका-टटका पहुंचे थे। अचानक रांची की सड़क पर आमना-सामना हो गया। सो, पूछ लिया, ‘और गुरु कैसी रही यूपी की यात्रा…’ गुरु सवाल में छिपी आगे की बात समझ गए। बोले- क्या जानना चाहते हो? सीधे पूछो तो बताएं। सवाल पर सवाल था, सो जवाब देना था। कहा-अरे गुरु, अनुभव पूछ रहे, व्यवस्था पूछ रहे, प्रबंधन पूछ रहे, प्रशासन पूछ रहे, विकास पूछ रहे …। गुरु को शायद इतने लंबे जवाब की अपेक्षा नहीं थी।
रोकने के अंदाज में बोले, अरे सुनो, सुनो! तुम्हारी पहली पंक्ति में ही सब समझ गया। जिज्ञासा उठी है तो समाधान लेते जाओ। प्रशासन का प्रबंधन ही व्यवस्था कहलाती है। विकास का अनुभव वैचारिक स्तर पर निर्भर है। गुरु ने पूरे तथ्य का सार दो पंक्तियों में समेट दिया। बेचैन मन इसकी विशद व्याख्या चाहता था। सो, फिर शालीन भाषा में पूछ लिया, ‘समझे नहीं गुरु।‘ गुरु बोले, सुनो, अज्ञेय की एक कविता है, ‘हरी घास पर क्षण भर।‘ कवि लिखता है, ‘आओ बैठें, इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है …‘। यह कविता तत्कालीन इलाहाबाद में लिखी गई थी, सन 1949 में।
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यह वही इलाहाबाद है, जिसका नाम अब प्रयागराज है, और जहां इन दिनों महाकुंभ लगा है। हर तरफ भक्ति के गीत सुनाई दे रहे हैं- अलख निरंजन, अलख निरंजन, जय गुरु दैत्य, जय गिरनारी…, प्रथम यज्ञ भूखंड धरा पे…। पूरे देश से लोगों के प्रयागराज पहुंचने का सिलसिला जारी है। आस्था के संगम में स्नान करने की होड़ है। मानव मन में भी यही अंतरद्वंद्व चल रहा है। स्थान एक ही है। कोई हरी घास पर बैठकर शांति पाना चाहता है। कोई लाखों की भीड़ के साथ पानी में डुबकी लगाना चाहता है। कहने का मतलब यह है कि जिस यूपी का तुम हाल जानना चाहते हो, तुम्हारे हालात भी उससे अलग नहीं हैं। बस तुम समझ नहीं पा रहे। कहीं भगदड़ दिखाई दे रही है।
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कहीं पेपर लीक सुनाई दे रहा है। कहीं शासन की कमान ‘यूपी’ के हाथ में है। कहीं प्रशासन की कमान ‘यूपी’ के हाथ में है। किसी के पास विकास का ‘बाबा मॉडल’ है। किसी के पास विकास का ‘अबुआ मॉडल’ है। सब अपने में व्यस्त हैं। सब अपने में व्यवस्थित हैं। ना कहीं कुछ अच्छा है, ना कहीं कुछ बुरा है। सब मन का फेर है। किसी बड़े घराने के बड़े राजनेता ने कभी इलाहाबाद में ही कहा था, ‘गरीबी सिर्फ एक मानसिक अवस्था है।’ बाकी पूरे देश में प्रशासन का पूरा जोर, व्यवस्था बनाकर सतत विकास स्थापित करने पर है। अब यह बात दीगर है कि झारखंड जैसे राज्य के कई जिलों में विकास के लिए विकास के अधिकारी नहीं हैं। कई अधिकारी विकास अधिकारी बनने की योग्यता रखते हैं, इसके बावजूद इनका ‘विकास’ नहीं हो रहा है। अलख जगाने की तमाम कोशिशों के बावजूद ‘अलक राज’ अलग राह पर है।
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