Jharkhand Bureaucracy : गुरु अपने घर के बरामदे में पोथी-पतरा लिए बैठे थे। चौखट पर पैर रखते ही सामने दिख गए। अभिवादन करते हुए पहुंचा। आहट सुनकर गर्दन उठाई। मुंह में पान था, सो सिर हिलाकर अभिवादन स्वीकार किया। सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। संकेतों में संदेश साफ था। गुरु फिलहाल मुखशुद्धि का स्वाद छोड़ने को तैयार नहीं थे। आंख गड़ाए पोथी के पन्ने फिर पलटने लगे। कहीं-कहीं उनकी नजर एक-दो मिनट ठहर जा रही थी। फिर आगे बढ़ जाते।
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लगभग पंद्रह मिनट तक शांत चित्त होकर देखता रहा। उनके पिटारे से कुछ निकालने के लिए संवाद जरूरी था और संवाद शुरू करने के लिए मौन व्रत तोड़ना था। सो, अपनी तरफ से सवाल किया। इन धार्मिंक किताबों में क्या खोज रहे हैं गुरु? गुरु मानो, इसी प्रश्न के इंतजार में थे। सिर हिलाते हुए हाथ से अपनी जगह पर बैठे रहने का इशारा किया। फिर कुर्सी से उठे। बरामदे की रेलिंग के पास पहुंचे। मुंह में भरी गिलौरी को विमुक्त किया। फिर आकर अपनी जगह बैठ गए। पन्ने को मोड़कर किताब को बंद किया। इसके बाद फिर से मुखातिब हुए, कहा- अरे तुम्हें नहीं पता? सूरज को ग्रहण लग रहा है।किताब में राशियों पर इसका प्रभाव देख रहा था।
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गुरु की बातचीत जारी रखने के लिए प्रतिउत्तर जरूरी था। सो, अपनी तरफ से बस अच्छा कह प्रश्नभरी निगाहों से देखा। गुरु बोले, आदमी चाहे जितना बड़ा हो जाए, ग्रह-नक्षत्र के प्रभाव से नहीं बच सकता। गुरु की अवधारणा पर प्रश्न खड़ा करने का कोई इरादा नहीं था। वह बेरोकटोक धारा प्रवाह बोलते रहे। कहा- तुम अपने नौकरशाही वाले मुहल्ले में ही देख लो। कई सूरमा ज्योतिषाचार्य से दिखाए बगैर घर के बाहर कदम नहीं रखते। गुरु के दावे की पुष्टि जरूरी थी। सो, अपनी तरफ से इसका फिर सत्यापन किया। बिल्कुल सही कह रहे, लेकिन एक सवाल मन में है। गुरु ने पूछा- क्या? इतना नेम-धरम करने के बावजूद कुछ लोग बड़े कष्ट में हैं, ऐसा क्यों? जवाब में गुरु बोले- देखो, कुछ लोगों पर शनि की साढ़ेसाती चढ़ी है।
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अब सीधे प्रश्न-उत्तर का समय था। लिहाजा फिर सवाल किया। अरे गुरु कुंभ राशि वालों का क्या, जिनके स्वामी शनि हैं। गुरु बोले- मैं समझ रहा हूं, तुम किस जातक को लेकर चिंतित हो। कभी उसका खूंटा बड़ा मजबूत था। शिलालेख के दौर में इनाम मिल गया। शनि दयालु हुए। लौह धारण किया। चमक बिखेरने की प्रबल संभावना थी। अचानक काल ने करवट ली। जातक का समय चक्र फरवरी 2022 से बदल गया। पहले टाटा ने टाटा किया, फिर ठोस ठिकाना मिला नहीं। कुछ महीनों तक दिल्ली में आशियाना बनाने का जतन किया। मामला फाइलों में फंसकर रह गया। थक-हारकर दिल्ली के झारखंड निवास में एक अदद छोटी कुर्सी की तलाश की। लाख प्रयत्न के बावजूद इंतजार बदस्तूर कायम रहा।
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गुरु सही दिशा में बढ़ रहे थे। लिहाजा, अब बात समस्या के कारण और समाधान पर करनी थी। लिहाजा गुरु से बेहिचक सीधे पूछ लिया। गुरु, इस सूरज पर लगा ग्रहण कब खत्म होगा? मामला फंसा कहां है? गुरु बोले- कुछ चीजें नियति तय करती है। अनादिकाल से यह मान्यता रही है कि जिस देवता से श्राप मिलता है, वही मुक्ति का समाधान भी बताते हैं। इस सूरज का ग्रहण भी खत्म होगा, लेकिन कब, यह कालचक्र तय करेगा। गुरु से वार्ता का दौर अपने निष्कर्ष पर पहुंच चुका था। सो, हाथ जोड़ा और विदा लिया।
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