इस बार मकर संक्रांति के मौके पर शहर भर में पतंगबाजी के इतने आयोजन हुए, जितने शायद पहले कभी नहीं हुए थे। आसमान में रंगबिरंगी पतंग देखकर पुरानी फिल्म का गाना उड़ी-उड़ी रे पतंग उड़ी रे… अनायास ही याद आ गया। मकर संक्रांति पर पहले से पतंगबाजी का आयोजन सिर्फ गुजराती समाज करता था, लेकिन इस बार कई समाज-संस्थाओं ने किया। इस बार भगवान भास्कर को समर्पित संस्था ने भी आयोजन किया, जिसमें जानी-मानी हस्ती ने भी पतंग उड़ाए, जिन्हें भारी चीज उड़ाने के लिए जाना-पहचाना जाता है। उन्हें पतंग उड़ाते देख लोग कह भी रहे थे कि आज इन्हें भी पता चल गया होगा कि धरती से मनुष्य पतंग या गुब्बारे ही उड़ा सकता है। ध्यान रहे, हम ड्रोन या हवाई जहाज जैसी यांत्रिक वस्तुओं की बात नहीं कर रहे हैं। हम निर्जीव वस्तु की बात कर रहे हैं, इसलिए आप कुछ ऐसा-वैसा मत सोचिएगा।
सबने नहीं पहनी टोपी
अपने देश में टोपी पहनाना मुहावरे के रूप में प्रचलित है, टोपी पहनने को कोई बुरा नहीं मानता। हम टोपी की चर्चा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि हाल में एक ऐसा वाकया देखने को मिला, जिसमें समारोह के दौरान बमुश्किल आधा दर्जन लोग ही टोपी पहने नजर आए थे, जबकि वहां भीड़ सैकड़ों की थी। सभी एक ही बिरादरी के थे, इसलिए सवाल उठाया गया कि सबने टोपी क्यों नहीं पहनी थी। कुछ ने कहा कि यहां उन्होंने ही टोपी पहनी थी, जो टोपी पहनाने के लिए जाने जाते हैं। यह सुनते ही भीड़ में खुसफुसाहट शुरू हो गई, क्या हमें टोपी पहनाना नहीं आता है। दूसरे ने कहा-ठीक है, भई। अब बस करो, हम जानते हैं कि तुम भी कई लोगों को टोपी पहनाते रहे हो, लेकिन टोपी पहनाने की वजह से …ख्यात तो नहीं हुए ना। हम कैसे मान लें कि तुम टोपीबाज हो।
मसाला टी का राज
इस लौहनगरी में चाय या टी के इतने शौकीन हैं कि जगह-जगह चौक-चौराहे या किसी नुक्कड़ पर चाय पीने वालों की भीड़ सुबह-शाम की कौन कहे, दोपहर में भी चहल-पहल दिख जाती है। अब तो कॉफी हाउस की तरह यहां दो-तीन टी-हाउस भी खुल गए हैं। खैर यहां बात हो रही है, मसाला टी या चाय की। हर कोई ब्लैक या रेड टी नहीं पीता, कुछ मसाला चाय के भी शौकीन हैं। भले ही वह मसाला दिखे या नहीं, उसका बस स्वाद ही मिलता है। पता चला है कि सरकार उस मसाले को ही खोजने-तलाशने में जुटी है, जो दिखता नहीं है, लेकिन उसके नशे में सैकड़ों लोग उस चाय को पीने के लिए जुटते हैं।
विडंबना ही कहेंगे कि पहले लोग कहते हैं कि इस दुकान में अच्छी चाय नहीं मिलती, वहां चलो। जब वह अच्छी चाय बनाता है, तो उसे नजर लगाने लगते हैं।
नशा बना रहा चोर
शहर में हाल के कुछ वर्षों से ऐसे चोरों की तादाद बढ़ी है, जो अमीर बनने के लिए नहीं, नशे के लिए दूसरों के गले, जेब, बाइक या घर तक पर हाथ फेर दे रहे हैं। इसे सामाजिक संस्कार का ही दोष कहा जाएगा कि अब लड़के अपने शौक के लिए दूसरों को कंगाल बनाने से नहीं हिचक रहे हैं। पुराने जमाने में जब बच्चों को अपना कोई शौक पूरा करना होता था, पिता की जेब से पैसे चुराते थे। इससे आगे बढ़ते थे तो घर के बर्तन, गहने आदि बाजार में बेच देते थे।
मां-बाप अपने कोख की लाज रखने के लिए मुंह नहीं खोलते थे, जिससे किसी को पता नहीं चलता था। इसमें अधिकतर बड़े होकर सुधर जाते थे, जबकि कुछ पास-पड़ोस की दीवार फांदना शुरू कर देते थे। आजकल के लड़के इतने एडवांस हो गए हैं कि सीधे बाहर ही ट्राई करते हैं।