ऋषिकेश में एक सन्यासी से मेरी मुलाकात हुई, उन्होंने मुझे सेममुखेम के बारे में बताया। मुझमें एक अलग सा आकर्षण इस धाम के प्रति जाग उठा , मन में कौतूहल हुआ की बस जल्दी ही इस धाम को अपनी आंखों से देखूं और महसूस करूं। उनके मार्गदर्शन ने काफी हद तक सफर को आसान कर दिया। उनसे रास्तों और इन रास्तों पर पड़ने वाले सभी प्रमुख जगहों की अच्छी जानकारी प्राप्त हुई।
सेममुखेम एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है जिसे लोग सेम नागराजा के नाम से जानते हैं। इसे नाग देवता का पांचवा धाम भी कहा जाता है। घनसाली मार्ग द्वारा उत्तरकाशी से पोखाल के लिए जाते हुए यह जगह करीब 30 किमी चलने पर बीच में पड़ती है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण दुर्गमता तो है लेकिन यह पूरा रास्ता हरा भरा और बहुत ही खूबसूरत है।
दिल्ली से इस जगह पर आने वाले ज्यादातर यात्री नेशनल हाईवे 34 से कोटद्वार, पौड़ी और श्रीनगर होते हुए गडोलिया नाम की एक छोटी सी जगह पर पहुंचने के बाद लंबगांव की तरफ बढ़ते हैं। यहीं से एक रास्ता कटकर नई टिहरी को भी जाता है।
सेम नागराजा के दर्शनों के लिए लंबगांव होते हुए जाना होता है। यह एक तरह से सेम जाने वाले यात्रियों का मुख्य पड़ाव है। पहले जब सेम मुखेम तक सड़क नहीं थी तो यात्री एक रात यहां विश्राम करने के बाद दूसरे दिन अपना सफर शुरू करते थे। ट्रेकिंग के शौकीन लोग यहीं से तकरीबन पन्द्रह किमी की चढ़ाई करके इस जगह पर पहुंचते और अपना कैंप लगाते हैं।
यहां का वातावरण कैम्पिंग और हाईकिंग दोनों ही तरह की गतिविधियों के लिए काफी अनुकूल है। सड़क बनने से अब इस मार्ग की दूरी बढ़ गई है लेकिन सफर काफी आसान हो गया है।
लंबगांव से अब कोई भी तैतीस किलोमीटर का सफर बस या टैक्सी से तय करने के बाद तबला सेम पहुंच सकता हैं। यहां से मंदिर पहुंचने के लिए सिर्फ ढाई किमी का पैदल सफर करना होता है। पर वह कहते हैं ना कि हर जगह की अपनी एक चुनौती होती है। पहले के लोगों के लिए पन्द्रह किमी की खड़ी चढ़ाई चुनौती लगती थी अब महज ढाई किमी लगती है।
यह चुनौती इस समय मेरे सामने भी है। साइकिल ऊपर जा नहीं सकती है और पैदल आने जाने का मतलब है दोपहर से शाम हो जाना। फिर सोचा कि रात कहीं ना कहीं तो रुकना ही पड़ेगा।
साइकिल एक दुकान पर रखा पीठ पर बैकपैक लादा और चल पड़े। आगे बढ़ने का मतलब प्रकृति के सम्मोहन में एक तरह से खोना ही कहा जाएगा। आखिरकार, डेढ़-दो घंटे की चढ़ाई के बाद सेममुखेम पहुंच गया। यह मंदिर पर्वत के सबसे आखिरी छोर पर स्थित है। इस जगह पर पहुंचने के बाद महसूस किया कि जगहों पर पहुंचने की भी अपनी एक खुशी होती है।
इसमें आश्वस्ति का गहरा भाव और बोध निहित होता है। इसलिए ही गंतव्य पर पहुंच रास्तों की सारी उकताहट को भूल इंसान शांत भाव से उस जगह के सम्मोहन में खो जाता है।
इस जगह पर पहुंचकर मेरी भी सारी की सारी भागदौड़ मानोंकि छूमंतर हो गई।मंदिर की भव्यता का अंदाजा मंदिर के मुख्य द्वार से ही लग जाता है। लंबे चौड़े इस द्वार के ऊपर नागराज के फन पर भगवान कृष्ण वंशी की धुन में लीन हैं। आंख मुंह पर पानी की छीटें मारने के बाद मैं मंदिर में प्रवेश करता हूं। महात्मा जी मंदिर के बारे में तरह-तरह की जानकारी देते हैं। वह मन्दिर के गर्भगृह में नागराज की स्वयं भू-शिला दिखाते हुए बताते हैं कि यह शिला द्वापर युग की है।
मंदिर के दायीं तरफ कुछ मूर्तियां स्थापित की गईं हैं। वहां भी ले जाते हैं और कहते हैं कि यह गंगू रमोला के परिवार है। इस मंदिर में सेम नागराजा की पूजा करने से पहले गंगू रमोला की पूजा की जाती है। दर्शन तो हो गए लेकिन मेरे मन में बार-बार यही ख्याल आता रहा कि आखिर यह गंगू रमोला कौन हैं?
महात्मा जी ने बताया कि मुखेम गांव- सेम मंदिर के पुजारियों का गांव है जिसकी स्थापना पांडवों ने की थी। गंगू रमोला जो उस समय रमोली पट्टी का गढपति था उसी का ये गांव है। गंगू रमोला ने ही सेम मंदिर का निर्माण करवाया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां भगवान श्रीकृष्ण के रूप में पूजे जाने वाले नागराजा की कथाएं भी वीर भड़ गंगू रमोला से जुड़ी हैं।
गंगू रमोला रमोली व रैका गढ़ के साथ 12 गढ़ों का गढ़पति था। अपनी प्रजा से गंगू को बेहद लगाव था, लेकिन श्री कृष्ण के रूप नागराजा की पूजा करने तथा एक साधु को ढाई गज जमीन देने से गंगू रमोला ने इन्कार किया। जिसकी वजह से उसे श्राप दे दिया गया और उसकी सारी संपन्नता बिखर गई। बाद में उसे अपनी भूल का अहसास हुआ तो उसने यह मंदिर बनवाया और नागराजा जात्रा की शुरुआत की जो वर्तमान में हर तीन साल पर आयोजित की जाती है।
इस मंदिर के यहां होने को लेकर भी एक पौराणिक कथा है। कथा के अनुसार जब गंगू रमोला ने उस साधु को रहने की जगह नहीं दिया तो वे एक डांडा यानि की पौड़ी गढ़वाल जाकर रहने लगे। जिसको वर्तमान में डंडा नागराज के रूप में जाना जाता है।
साधु के जाने के बाद गंगू रमोला के साम्राज्य में अकाल पड़ने लगा, भेड़ बकरियां मरने लगी तो उन्होंने साधु को दोबारा आने का आग्रह किया। साधु वापस आए और सेम में शिला के बगल में अपने रहने के लिए एक घर बनाया। ऐसा माना जाता है कि यह शिला वासुकी नागराज की है जिसे कृष्ण ने गोकुल में हारने के बाद यहां हिमालय सेममूखेम जाने का आदेश दिया था।
इतना कुछ जानने समझने के बाद मेरे मन में कई तरह के ख्याल आये। लेकिन मैंने इन सबमें सिर्फ और सिर्फ लोगों की आस्था, श्रद्धा और विश्वास को तरजीह दिया और मन में भक्ति का भाव लिए वापस आ गया।
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