फीचर डेस्क : सनातन धर्म में भगवान सूर्य की उपासना और उन्हें अर्घ्य देने का ऐसा महत्व क्यों है। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो बाकायदा छठ पर्व मना कर भगवान सूर्य के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित की जाती है, लेकिन आखिर सूर्य देव इतने खास क्यों है। क्यों सूर्य को प्रत्यक्ष और साक्षात कहा जाता है और क्या वजह है कि हर कोई चाहता है कि उसकी कुंडली में सूर्य मजबूत बने। आखिर भगवान सूर्य को प्रसन्न करना इतना आवश्यक क्यों है। क्या है सूर्य की महिमा। प्रतिदिन आसमान में उगने और जनता को प्राण देने के साथ ही क्या हैं वे तत्व, जो सूर्य को बनाते हैं महा शक्तिमान।
हिंदुओं में नवग्रहों के प्रमुख देवताओं में से एक, भगवान सूर्य विशेष शक्ति और सौंदर्य के प्रतीक हैं। सूर्य देव को 7 घोड़ों वाले रथ पर सवार दिखाया जाता है, जो उनकी अविरल गति और ऊर्जा को दर्शाता है। ये सात घोड़े इंद्रधनुष के रंगों और हमारे सूक्ष्म शरीर के सात कुंडलिनी चक्रों का प्रतीक हैं। मानो सूरज की किरणें हमारे भीतर आध्यात्मिक ऊर्जा के प्रवाह को जागृत कर रही हों। सूर्य देव के हाथों में कमल का फूल, शंख, चक्र और गदा जैसे दिव्य आयुध हैं, जो उनके विशेष गुणों और दिव्यता को प्रकट करते हैं। कमल प्रेम और जीवन का प्रतीक है, तो शंख, चक्र और गदा उनकी शक्ति, अनुशासन और विवेक का संकेत देते हैं।
सूर्य पूजन की परंपरा
भगवान सूर्य से जुड़ी एक आश्चर्यजनक की बात यह भी है कि उन्हें न केवल साधु-संत बल्कि असुर भी पूजते हैं। कुछ राक्षस समुदाय, जिन्हें यतुधान कहा जाता है, भगवान सूर्य के अनन्य भक्त माने जाते हैं। सौर संप्रदाय के अनुयायियों के बीच भी सूर्य देवता को सर्वोच्च ईश्वर का दर्जा प्राप्त है। हालांकि अब ये संप्रदाय दुर्लभ हो चुका है।
इसके अलावा, भारत के कई मंदिरों में आज भी सूर्य पूजा की परंपरा कायम है और सुबह के समय की उनकी उगती किरणों को ऊर्जा और आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है। मकर संक्रांति, रथ सप्तमी, छठ और सांब दशमी जैसे कई त्योहारों पर भी भगवान सूर्य के प्रति जनता की भक्ति और श्रद्धा जैसे आस्था का एक समुद्र बन कर उमड़ पड़ती है। यह विश्वास इस तथ्य को स्थापित करता है कि भगवान सूर्य परब्रह्मं ईश्वर का ही विराट रूप हैं।
पुराणों में भगवान सूर्य की महिमा
इसका सबसे बड़ा प्रमाण देखने को मिलता है मार्कण्डेय पुराण में, जहां बताया गया है कि सृष्टि की रचना करने के लिए भगवान विष्णु की नाभि से निकले महापद्म से प्रजापिता ब्रह्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने ओम् का उच्चारण किया। इससे इतर भू, भूव, स्व का भी उच्चारण हुआ। ये शब्द ही भगवान भास्कर का स्वरूप बने। हालांकि उस समय अक्षर स्वरूप होने के कारण भगवान भास्कर बहुत सूक्ष्म थे।
वहीं, इसके बाद ब्रह्माजी ने सारे वेदों की रचना की और इन चारों वेदों के प्रकट होते ही जगत प्रकाशमान हो गया। चारों वेदों से चार विभिन्न ओज उत्पन्न हुए (उर्ध्व, अध, तिर्यक और पार्श्व)।फिर इन चार अलग-अलग भागों से बना तेज जाकर परमतत्व यानी के ओंकार में एकाकार हो गया। चूंकि यह तेज आदि अर्थात आरंभ में उत्पन्न हुआ तो इसे आदित्य नाम दिया गया। लेकिन उसी समय ब्रह्माजी को लगा कि भास्कर का तेज इतना है कि अगर मैं पृथ्वी बनाउंगा तो उनके तेज से यह पूरी पृथ्वी नष्ट हो जाएगी। यहां तक कि आदित्य के तेज से जल तक सूख जाएगा। तब ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और तब भगवान भास्कर ने अपने तीव्र तेज को त्याग कर सामान्य तेज धारण कर लिया। हालांकि भगवान भास्कर का यह सामान्य तेज भी बहुत ही घातक था।
शिव पुराण की रुद्र संहिता खंड में यह वर्णन है कि देवशिल्पी विश्वकर्मा ने सूर्यदेव की तीव्र चमक और गर्मी को कम किया। सूर्य की पत्नी संज्ञा सूर्य की तेज गर्मी सहन नहीं कर पा रही थीं और ऐसे में वे अपने पिता विश्वकर्मा के पास मदद के लिए गईं। तब विश्वकर्मा ने सूर्य को अपनी मशीन जिसे चाकी कहा जाता है, उस पर रखकर उनके अत्यधिक तेज को थोड़ा कम कर दिया, जिससे सूर्य का ताप उनकी पत्नी संज्ञा के लिए सहने योग्य हो गया।
इसी तरह ब्रह्माण्ड पुराण में भी यह कथा है कि विश्वकर्मा ने सूर्य की गर्मी को कम किया, ताकि संज्ञा सूर्य के साथ रह सकें। इस कथा के अनुसार, सूर्य से हटाई गई इस तेजस्वी ऊर्जा का उपयोग भगवान विष्णु के ‘सुदर्शन चक्र’ और भगवान शिव के ‘त्रिशूल’ जैसे दिव्य अस्त्रों और पुष्पक विमान आदि को बनाने के लिए किया गया।
भागवत पुराण के पंचम स्कंद के अनुसार सूर्य सभी ग्रहों और नक्षत्रों के अधिपति हैं। वे उतरायण में मंद दक्षिणायण में तीव्र और विषुवत केंद्र पर स्थित होकर समान गति से चलते हैं। सूर्य अपनी परिक्रमा के रास्ते में पूर्व दिशा की ओर इंद्र की देवधानी दक्षिण में यमराज की संयमनी नगरी, पश्चिम में वरुण देवता की निमलोचनी और उत्तर में चंद्रमा की विभावरी पुरी को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ते हैं और उनका रथ स्वयं वेदमय है जो कि एक मुहूर्त में 64 लाख आठ सौ योजन चलता है।
वहीं लिंग पुराण के पूर्व भाग में कहा गया है कि चैत्र, बैशाख, ज्येष्ठ आदि बारह महीने ही सूर्य के रथ के पहिए के धुरे और शरद, हेमंत, ग्रीष्म, वर्षा आदि छह ऋतुएं इस रथ की नेमी है। यह रथ स्वयं में 36 लाख योजन लंबा और 9 योजन चौड़ा है।इसमें गायत्री मंत्र के छंदों के नाम वाले सात घोड़े जुते हैं। गायत्री मंत्र के ये छंद गायत्री, बृहती, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति हैं। सूर्य के इस रथ के सारथी का नाम अरुण है, जो भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के भाई हैं।
भगवान सूर्य के इस रथ पर 60 हजार वलखिल्य ऋषि निरंतर रहते हैं और स्वस्ति वाचन करते रहते हैं। रथ की रक्षा के लिए इस पर नाग, यक्ष, यातुधान श्रेणी के राक्षस भी रहते हैं। वहीं, अप्सराएं और गंधर्व भी इस रथ पर निरंतर रहते हैं और ये सभी अलग-अलग पारियों में निर्धारित समय के लिए बारी बारी से इस रथ पर निवास करते हैं।
बारह आदित्य कौन हैं
बारह आदित्य भगवान सूर्य के बारह रूपों को कहा जाता है। ये 12 आदित्य साल के बारह महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं और ऋतुओं, प्रकृति, और पृथ्वी पर ऊर्जा और जीवन का संचार करते हैं। आइए इनके बारे में कुछ जानना शुरू करते हैं…
धाता सृष्टि के निर्माता हैं और जगत की व्यवस्था बनाए रखते हैं।
मित्र देव मित्रता, सौहार्द और प्रकृति के संतुलन का प्रतीक हैं।
अरीमान को युद्ध और बलिदान का प्रतीक माना जाता है।
वरुण को जल और महासागरों के देवता और नियमों का रक्षक माना जाता है।
अंशु… प्रकाश, ऊर्जा और किरणों का प्रतीक हैं।
भग को भाग्य और समृद्धि का देवता माना जाता है।
विवस्वान देव जीवन के प्रदाता हैं, सभी प्राणियों को जीवन देते हैं।
पूषा को रक्षा और मार्गदर्शन के देवता माना जाता है, वे यात्रा और व्यापार में सहायता करते हैं।
सविता : ज्ञान और पवित्रता का प्रतीक है।
त्वष्टा : सृजन और रूप देने के देवता हैं, जिनका निर्माण और वास्तुकला में महत्वपूर्ण स्थान है।
इंद्र : देवताओं के राजा, शक्ति और विजय के प्रतीक हैं।
वहीं, विष्णु जगत का पालन करने वाले देवता हैं, समस्त सृष्टि की रक्षा करते हैं।
ये बारह आदित्य प्रत्येक महीने की ऊर्जा और उसके विशेष प्रभावों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें ऋग्वेद और अन्य वैदिक ग्रंथों में भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है और इनकी पूजा वर्ष भर सूर्य देवता के विभिन्न रूपों के रूप में की जाती है। ये 12 आदित्य सृष्टि की रचना, संचालन और संहार का प्रतीक माने जाते हैं। प्रत्येक आदित्य के पास प्रकृति और जीवन से जुड़ा कोई न कोई विशेष कार्य है, जैसे धाता सृष्टि के धारणकर्ता माने जाते हैं, जबकि अर्यमा आदित्य पितरों के प्रतिनिधि हैं।
इन आदित्यों की पूजा और स्मरण विशेष रूप से सूर्य नमस्कार के दौरान और संक्रांति जैसे पर्वों में किया जाता है। इन द्वादश आदित्य का वर्णन भागवत पुराण, महाभारत और विष्णु पुराण जैसे ग्रंथों में भी मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार, प्रत्येक महीने सूर्य के रथ पर एक अलग आदित्य निवास करते हैं। ये 12 आदित्य साल के 12 महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और हर महीने एक विशेष आदित्य सूर्य के रथ पर विराजमान होते हैं। आइए जानते हैं कि किस महीने में कौन से आदित्य करते हैं सृष्टि का संचालन…
चैत्र में धाता
वैशाख में अरीमान
ज्येष्ठ में मित्र
आषाढ़ में वरुण
श्रावण में इंद्र
भाद्रपद में विवस्वान
आश्विन में पूषा
कार्तिक में पर्यंजन
मार्गशीर्ष में अंश
पौष में भग
माघ में त्वष्टा
फाल्गुन में विष्णु
ये आदित्य हर महीने सूर्य के रथ पर निवास करते हैं और उस महीने की विशेष ऊर्जा और गुणों को सृष्टि में संचारित करते हैं।
आदित्य का अर्थ है देवों की माता देवी अदिती से उत्पन्न। ऋग्वेद में इन सभी आदित्यों को पवित्र माना गया है और कपट, झूठ और नकारात्मकता से मुक्त बताया गया है। वे बहुत दयालु दिव्य तत्व हैं, जो सभी प्राणियों की रक्षा करते हैं और पारलौकिक तत्वों की भी रक्षा करते हैं।
छांदोग्य उपनिषद में, आदित्य भगवान विष्णु का ही एक और नाम है, जो उनके पांचवें अवतार वामन से जुड़ा है। वामन रूप में भगवान विष्णु अदिति के गर्भ से उत्पन्न हुए, इसलिए उन्हें भी आदित्य कहा गया।
ज्योतिष में सूर्य
वेदिक ज्योतिष में, सूर्य को बहुत अधिक गर्मी उत्सर्जित करने वाला माना जाता है। इस प्रकार, कुंडली में सूर्य देवता, आत्मा की उन्नति, जीवन शक्ति, साहस, इच्छाशक्ति, अधिकार और राजसी गुणों आदि का प्रतिनिधित्व करता है। सूर्य की स्थिति मेष में उच्च होती है और तुला में वक्री होती है। कुंडलियों में, सूर्य के लिए सबसे अच्छा स्थान 10वें घर और 1, 5 और 9वें घर में होता है। सूर्य कृत्तिका, उत्तर फाल्गुनी और उत्तराशढा नक्षत्र के स्वामी हैं, उन्हें अमूमन लाल, तांबे और धात्विक रंगों के साथ जोड़ा जाता है और उनका रत्न रुबी है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में सूर्य की स्थिति अच्छी नहीं है, तो इससे उस व्यक्ति में बेहद कम आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास की कमी, खराब स्वास्थ्य जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं।
भगवान सूर्य की उपासना
सुबह जल्दी स्नान करने के बाद, भक्त को भगवान सूर्य की ओर देखते हुए जल अर्पित करते हुए उन्हें नमस्कार करना होता है। सूर्य को ब्रह्म का रूप माना जाता है, इसलिए उन्हें अक्सर सूर्य नारायण कहा जाता है। भगवान सूर्य की उपासना के लिए कई मंत्र प्रचलित हैं, इनमें से ‘ॐ घृणी सूर्याय नमः’ मंत्र को बहुत शक्तिशाली माना जाता है। इसके अलावा सूर्य उपासना के लिए आदित्य-हृदय स्तोत्र को भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
आदित्य-हृदय स्तोत्र की महिमा
आदित्यहृदयम् स्त्रोत सूर्य देव की स्तुति के लिए वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड मे लिखे मंत्र हैं। जब श्री राम, रावण से युद्ध के लिये रणक्षेत्र में आमने-सामने थे, उस समय अगस्त्य ऋषि ने श्री राम को सूर्य देव की स्तुति करने की सलाह दी, ताकि वे रावण का सामना करने के लिए साहस और शक्ति प्राप्त कर सकें। यह स्तोत्र बाद में ऋषि वाल्मीकि द्वारा संकलित किया गया था। इस स्त्रोत के एक श्लोक में कहा गया है…
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः। महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः । वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ||
जिसका अर्थ है कि भगवान सूर्य त्रिदेवों यानी ब्रह्मा, विष्णु, शिव और कार्तिकेय, प्रजापति, इन्द्र, जैसे देवताओं के ही समान हैं। इसके साथ ही, उन्हें प्राण और ऋतुओं को प्रकट करने वाला भी माना गया है।
तो, अब आपको समझ आ गया होगा कि सूर्य देवता केवल एक ग्रह नहीं, बल्कि साक्षात जीवन और ऊर्जा के प्रतीक हैं। उनके बिना न तो सृष्टि संभव है, न ही जीवन, तो अब जब आप सुबह की पहली किरण देखें, तो उसे केवल एक साधारण घटना ना मानें। वो सूर्य देव का आशीर्वाद है, जो आपके जीवन को शक्ति, प्रकाश और आनंद से भर देता है।
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