नौकरशाही वाले मुहल्ले में बड़ा शोर था। किसी बड़े महात्मा का प्रवचन चल रहा था। कथावाचक की बातों को लोग तन्मयता से सुन रहे थे। भक्त और भगवान के प्रेम प्रसंग के बीच गुरु अचानक उठकर चल दिए। उन्हें जाता देख पीछे-पीछे हो लिया। थोड़ा आगे पहुंचकर कहीं पकड़ में आए। पूछा, ‘काहे गुरु! बीच से ही चल दिए।‘ कुछ परेशानी है का? चेहरे पर थोड़ा तनाव नजर आ रहा है। सुना है, कथा श्रवण करने से तो लोग तनावमुक्त होते हैं। आप तनावग्रस्त हुए जा रहे हैं।
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आखिर बात क्या है? गुरु ने कहा, मुझे कुछ जरूरी काम याद आ गया। लेकिन तुम बताओ, तुम क्यों मेरे पीछे-पीछे हो लिए? सवाल हुआ था, सो जवाब देना जरूरी था। कहा- अरे गुरु! आध्यात्मिक ज्ञान ले लिया। सोचा, अब कुछ देश-दुनिया के बारे में भी जान लें। ईमानदारी से कहूं तो इसी लालच में पीछे-पीछे चला आया।
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उत्तर सुनकर गुरु की त्योरियां चढ़ गईं। बोले, मेरे पास बताने के लिए कुछ नहीं है। गुरु की नाराजगी साफ झलक रही थी। लिहाजा सहज करना जरूरी था। पूछा- गुरु कोई गलती हुई है क्या। गुरु बोले- नहीं कोई गलती नहीं हुई है। हकीकत यही है कि लोगों का आपसी प्रेम तुम खबरनवीस लोगों से देखा नहीं जाता। दो लोग कुछ नजदीक क्या आए, तुम लोग टांग खींचने लगते हो। कभी इन चीजों से अलग होकर अपने लिए भी समय निकाल लिया करो। सुना तो होगा ही, प्रवचन में कथावाचक क्या कह रहे थे ? जवाब दिया-हां गुरु सुना तो है। अनुराग-वैराग्य, राग-द्वेष की अधिकता खुद को ही नुकसान पहुंचाती है।
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गुरु बोले,फिर ? क्यों तुमलोग सियासत के इतने अंदर तक घुस जाते हो कि नौकरशाह चिढ़ जाते हैं। करने दो उन्हें जो वह करना चाहते हैं। तुम अपना काम करो। गुरु का संकेत साफ था लेकिन अर्थ स्पष्ट करने के लिए कुछ और सहज व्याख्या की जरूरत थी। सो पूछा, गुरु! कहीं आपका इशारा खाकी वर्दी वाले साहब को लेकर केंद्र और राज्य के बीच चल रही मौजूदा खींचतान की तरफ तो नहीं।
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गुरु बोले- बिल्कुल सही पकड़े हो? हकीकत जितनी जल्दी समझ जाओ, उतना बेहतर है। हमारे दादाजी कहा करते थे, नियम तो बनाए ही जाते हैं तोड़ने के लिए। सो, तोड़े जा रहे हैं। कुर्सी की माया ही कुछ ऐसी है। एक बार लग गई तो फिर छुड़ाए नहीं छूटती। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि नियम-कायदे क्या कहते हैं? फर्क इससे पड़ता है कि हाकिम हुक्मरान क्या चाहते हैं।
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