रांची : भारत में चुनावी राजनीति में चरित्र हनन की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती जा रही है। जैसे ही चुनावी दौर आता है, राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखाने के लिए व्यक्तिगत हमलों का सहारा लेने लगते हैं। यह रणनीति अक्सर उन महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए होती है, जो जनता के जीवन में असल बदलाव ला सकते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विकास जैसे मुद्दों पर चर्चा की बजाय, राजनीतिक नेता विरोधियों के व्यक्तिगत जीवन, अतीत के कार्यों और परिवार को निशाना बनाते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल राजनीतिक संस्कृति को दूषित करती है, बल्कि समाज में नकारात्मकता और तनाव भी बढ़ाती है।
चरित्र हनन से जनता में बढ़ती असमंजस और हताशा
जब किसी नेता पर चरित्र हनन का आरोप लगाया जाता है, तो इसका असर सामान्य जनता पर भी पड़ता है। जनता असली मुद्दों से भटक जाती है और इस नकारात्मक राजनीति से भ्रमित हो जाती है। यह स्थिति जनता में राजनीतिक निराशा को जन्म देती है और लोग चुनावी प्रक्रिया से हताश होने लगते हैं। इससे लोकतंत्र की नींव कमजोर होती है, क्योंकि लोग राजनीति और नेताओं पर अपना भरोसा खोने लगते हैं।
समाज में बढ़ता ध्रुवीकरण और घटती सहिष्णुता
चरित्र हनन से समाज में ध्रुवीकरण भी बढ़ता है। लोग अपने-अपने दलों के प्रति कट्टरता दिखाने लगते हैं, जिससे संवाद और सहिष्णुता की भावना समाप्त होती जा रही है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन सकती है, क्योंकि इससे जनता का विश्वास कमजोर होता है और राजनीतिक जिम्मेदारी का अभाव बढ़ता है। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि हम विचारों और नीतियों पर बहस करें, न कि व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप में उलझें।
सकारात्मक राजनीति की ओर बढ़ना आवश्यक
समाज के लिए यह जरूरी है कि चुनावी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाए और व्यक्तिगत हमलों की बजाय विचारों और नीतियों की समीक्षा की जाए। यदि राजनीतिक दल चरित्र हनन छोड़कर सकारात्मक राजनीति की राह अपनाएं, तो इससे चुनावी प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनेगी। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि विकास, समृद्धि और वास्तविक मुद्दों पर चर्चा हो, ताकि जनता का विश्वास मजबूत रहे और लोकतांत्रिक प्रक्रिया सुदृढ़ हो सके।
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