मेरठ : नवरात्र का समय चल रहा है। शनिवार को नवरात्र का तीसरा दिन है। इस दिन मां चंद्रघंटा की पूजा होती है। नवरात्र के दसवें दिन विजयादशमी यानी दशहरे का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से लोग रावण के पूतले का दहन करते हैं, लेकिन एक ऐसा भी गांव है, जहां दशमी के दिन न तो रावण दहन होता और ना ही किसी घर में चूल्हा जलता है। रावण दहन के बदले इस गांव के लोग इस गांव के शहीदों को याद करते हैं।
जी हां, यहां बात हो रही है मेरठ के गगोल गांव की। इस गांव में यह पर्व एक भिन्न तरीके से मनाया जाता है। यहां विजयादशमी के दिन रावण दहन की जगह हवन-पूजन का आयोजन किया जाता है।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम और गगोल की परंपरा के अनुसार इस गांव में दशहरे के दिन मायूसी छाई रहती है। यहां, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, गांव के नौ क्रांतिकारियों को एक पीपल के पेड़ पर फांसी दी गई थी। तभी से गांव वाले इस दिन को शोक के रूप में मनाते हैं। चूल्हा जलाना तो दूर, गांव में किसी प्रकार की खुशी नहीं होती। गांव वाले हर साल इस दिन शहीदों की याद में एक मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं, ताकि उनके गांव के बलिदानियों को सम्मान मिल सके।
पुजारी की अनोखी परंपरा
गगोल की परंपरा के अलावा, मेरठ के ऐतिहासिक बिलेश्वर नाथ मंदिर में भी रावण दहन देखने की परंपरा नहीं है। मंदिर के प्रमुख पुजारी, पंडित हरीश चंद्र जोशी बताते हैं कि रावण एक ब्राह्मण था, जो वेद और पुराणों का ज्ञाता था। इसलिए, ब्राह्मण होने के नाते, रावण दहन देखना उनके लिए गलत माना जाता है।
इसके अलावा, यह भी मान्यता है कि मंदोदरी, जो रावण की पत्नी थी, का मायका मेरठ था। ऐसे में, दामाद का दहन होना परंपरा के खिलाफ है।
शहीदों की श्रद्धांजलि
गगोल के लोग अपनी परंपराओं को गर्व से निभाते हैं। नरेश गुर्जर, जो एक क्रांतिकारी के परिवार से हैं, कहते हैं कि हमारे गांव में दशहरे पर कोई आयोजन नहीं होता। हम अपने शहीदों की याद करते हैं।
इतिहास विभाग के अध्यक्ष, प्रोफेसर विग्नेश त्यागी भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि 3 जून 1857 को गगोल गांव में इन क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। आज भी, जहां यह काला इतिहास लिखा गया था, वहां एक कुआं और पीपल का पेड़ मौजूद है, जो शहीदों की याद दिलाता है।
इस प्रकार, गगोल गांव विजयादशमी को न केवल एक पर्व, बल्कि अपने शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि देने का अवसर मानता है।
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