जमशेदपुर : झारखंड विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए आदिवासी चेहरा न उतारने की भाजपा की रणनीति ने उसे बड़ा नुकसान पहुंचाया। भाजपा के सूत्रों और राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि पार्टी ने स्थानीय नेताओं को दरकिनार कर बाहरी नेताओं पर भरोसा जताया, जिससे कार्यकर्ताओं और जनता के बीच नाराजगी बढ़ी।
बताया जाता है कि पूरा चुनावी अभियान दो बाहरी नेताओं द्वारा संचालित किया गया। वहीं, पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेताओं और स्थानीय कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को टिकट दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि मौजूदा भाजपा विधायक केदार हाजरा और पूर्व मंत्री लुईस मरांडी ने चुनाव से ठीक पहले झामुमो का दामन थाम लिया।
जमीनी मुद्दों को भुलाकर राष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. बागीश चंद्र वर्मा के अनुसार, भाजपा का चुनाव प्रचार जमीनी मुद्दों से कटकर राष्ट्रीय विषयों और ‘घुसपैठ’ जैसे विवादास्पद विषयों पर केंद्रित रहा। इससे ग्रामीण जनता के साथ पार्टी का जुड़ाव कमजोर हो गया।
रांची विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के अध्यक्ष वर्मा ने कहा कि पार्टी का यह रवैया ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में उसके लिए नुकसानदायक साबित हुआ।
झामुमो की रणनीति और महिला मतदाताओं की भूमिका
इसके विपरीत, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने अपने पारंपरिक वोट बैंक – मुस्लिम, ईसाई और आदिवासी समुदायों के साथ महिलाओं को भी जोड़ने की प्रभावी रणनीति अपनाई। ‘मंईयां सम्मान योजना’ जैसे लोकलुभावन वादों ने महिलाओं का बड़ा समर्थन झामुमो को दिलाया। इस योजना के तहत 18 से 50 वर्ष की महिलाओं को 2,500 रुपये प्रति माह देने का वादा किया गया।
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में से 68 सीटों पर महिला मतदाताओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक रही, जो झामुमो की जीत में एक महत्वपूर्ण कारक बनी।
भाजपा को सबक और भविष्य की रणनीति
झारखंड चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि स्थानीय मुद्दों और नेताओं को नजरअंदाज करना भाजपा के लिए भारी पड़ सकता है। अगर पार्टी को भविष्य में इस राज्य में वापसी करनी है, तो उसे जमीनी नेताओं को साथ लेकर चलना होगा और जनता से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता देनी होगी।