जमशेदपुर : झारखंड में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। 18 सितंबर शुक्रवार से नामांकन की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी, लेकिन अब तक किसी भी राजनीतिक दल ने उम्मीदवारों की आधिकारिक सूचना जारी नहीं की है। संभवत: शुक्रवार शाम तक सूची जारी हो जाए, लेकिन उम्मीदवारी को लेकर कयासों-अटकलों का बाजार गर्म है। कई चैनल-पोर्टल व वेबसाइट में उम्मीदवारों की संभावित सूची भी दिखाई जा रही है। इससे कई बार भ्रम भी फैल रहा है और उसके आधार पर दावेदार प्रत्याशी खंडन भी कर रहे हैं। यह विडंबना नहीं तो क्या है।
बहरहाल, इस बात को लेकर राजनीतिक हलकों के अलावा प्रदेश के आम लोगों में इस तरह की चर्चा हो रही है कि इस बार के चुनाव में क्या होगा। क्या झामुमो दोबारा सत्ता में लौटेगी या भाजपा बाजी मारेगी। इसे लेकर तरह-तरह के विश्लेषण भी किए जा रहे हैं। सबके अलग-अलग तर्क हैं। वैसे सभी का यह मानना है कि झामुमो यानी झारखंड मोर्चा की गांव में जबरदस्त पकड़ है, क्योंकि यह झारखंड अलग राज्य आंदोलन के गर्भ से ही जन्मी है। नब्बे के दशक में जब यह आंदोलन जोर पकड़ा था, तो आदिवासियों ने इसे अपने अस्तित्व से जोड़ लिया था। उनके साथ कुड़मी-महतो सहित तमाम मूलवासी, जो यहां पीढ़ियों से रह रहे थे, उन्होंने भी आंदोलन में महती भूमिका निभाई थी।
आज भले ही कुड़मी अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं और आदिवासी इनकी मांग का विरोध कर रहे हैं, लेकिन उस समय आदिवासी-मूलवासी में कोई भेद ही नहीं था। सबको झारखंड अलग राज्य का आंदोलन अपना लगता था। वे मरने-मारने के लिए तैयार थे, शायद अब भी अधिकांश मूलवासियों में यह भावना है।
हालांकि, आंदोलन समाप्त हुए और झारखंड राज्य का गठन हुए 24 वर्ष हो गए हैं, इसलिए अब एक युवा पीढ़ी तैयार हो गई है, जो मूलवासियों को आदिवासी का दर्जा दिलाने के लिए बेताब है। इस पीढ़ी ने आंदोलन नहीं देखा था, लेकिन उन्हें भी झामुमो अपनी पार्टी लगती है। गांव में आज भी कई ऐसे बुजुर्ग मिल जाएंगे, तो शिबू सोरेन या हेमंत सोरेन की बजाय झामुमो का मतलब तीर-धनुष ही जानते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उम्मीदवार कौन है। वे तो तीर-धनुष पर ही बटन दबाते हैं।
अब हम भाजपा की बात करते हैं। भाजपा का भी इस राज्य के गठन में अहम योगदान है। 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था, भाजपा इसका श्रेय भी लेती है। दरअसल, नब्बे के दशक में ही, जब झारखंड अलग राज्य आंदोलन निर्णायक मोड़ पर था, भाजपा भी वनांचल के नाम से संगठन चला रही थी। राज्य गठन के दौरान वनांचल या झारखंड को लेकर द्वंद्व भी छिड़ा, लेकिन अंत में झारखंड शब्द ही चुना गया। अलग राज्य बनते-बनते झारखंड में भाजपा ने मजबूत पैठ बना ली थी।
पहले इसे उच्च, संभ्रांत व बुद्धिजीवियों की पार्टी के रूप में पहचान मिली थी। इसकी वजह से झारखंड में भीतरी-बाहरी की लड़ाई भी हुई। धीरे-धीरे यह खाई बहुत हद तक पट गई, लेकिन झामुमो इस बात का प्रचार करता है कि भाजपा बाहरी लोगों की पार्टी है, इन्हें आदिवासियों से हमदर्दी नहीं है। हालांकि रघुवर दास और इससे पहले बाबूलाल मरांडी व अर्जुन मुंडा ने अपने कार्यकाल में इस धारणा को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। धीरे-धीरे ही सही, आज शहरी क्षेत्र को भाजपा का गढ़ माना जाता है। झामुमो भी इस बात को मन ही मन मानता है कि शहर में उससे कहीं ज्यादा भाजपा के वोटर हैं। भाजपा ने शहरी वोटों के बल पर ही राज्य में अपनी जड़ें मजबूत बना ली है।
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