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Vibhuti Bhushan Bandopadhyay Jharkhand : बांग्ला साहित्य के पुरोधा विभूति भूषण बंदोपाध्याय की जन्मभूमि से अधिक प्रसिद्ध हुई उनकी कर्मभूमि ‘गौरीकुंज’

• पुण्यतिथि (Death Anniversary) पर विशेष : घाटशिला की गोद में जन्मा साहित्यिक चमत्कार "पथेर पांचाली"

by Rajesh Choubey
Vibhuti Bhshan Bandopadhyay
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Pather Panchali Origin Ghatshila (Jharkhand) : बांग्ला साहित्य के पुरोधा, विभूति भूषण बंद्योपाध्याय का नाम सुनते ही आंखों के सामने ग्रामीण जीवन की सरलता, प्रकृति की कोमलता और मानवीय संवेदनाओं की गहराई उभर आती है। उनका जीवन और साहित्य जहां बंगाल की मिट्टी से जन्मा, वहीं उसकी गूंज झारखंड की हरियाली और पहाड़ियों के बीच बसी घाटशिला की धरा पर प्रखर व मुखर हुई। यही कारण है कि उनकी जम्मभूमि से अधिक उनकी कर्मभूमि घाटशिला की धरती आज अधिक सुप्रसिद्ध और पूजनीय बन चुकी है।

सच्ची पहचान बनी घाटशिला की धरती

12 सितंबर 1894 को बंगाल के नदिया जिला स्थित मुरातीपुर गांव में एक शिशु का जन्म हुआ, जो आगे चल कर साहित्य जगत के नभ पर विभूति भूषण बंदोपाध्याय के रूप में एक चमकता हुआ सितारा बना। मुरातीपुर में उनके मामा का घर था, जो अब कल्याणी विश्वविद्यालय परिसर में समाहित हो चुका है। उस स्थल पर उनके बाल्यकाल की छवि एकमात्र स्मृति के रूप में शेष है। लेकिन, उनकी लेखन साधना की सच्ची पहचान झारखंड के घाटशिला की धरती बनी, जहां उन्होंने अपने विचारों को शब्दों का रूप दिया और कालजयी रचनाओं के रचयिता के रूप में विख्यात हूए।

घाटशिला के दाहीगोड़ा गांव स्थित ‘गौरीकुंज’ सिर्फ एक भवन नहीं, बल्कि उन रचनात्मक लहरों का केंद्र है, जहां बैठकर विभूति बाबू ने पथेर पांचाली, अपराजिता, आरण्यक, चांदेर पहाड़ जैसी अद्भुत कृतियों की रचना की। इस घर का नाम उन्होंने अपनी पत्नी गौरी देवी के नाम पर रखा था। पहले यह मिट्टी और टाली से बना हुआ था, जो अब समय के थपेड़ों को झेलते-झेलते नष्ट हो चुका है। परंतु, उसकी स्मृति में उसी अनुकृति में एक नया भवन तैयार किया गया है, जिसमें आज भी विभूति बाबू की स्मृतियों का संसार जीवंत है।

एक किस्सा- 500 रुपये और एक अमर निवास

गौरीकुंज से जुड़ा एक अनोखा प्रसंग भी साहित्य-जगत में प्रसिद्ध है। कोलकाता के ठेकेदार अशोक गुप्ता ने वर्ष 1934-35 के आसपास विभूति बाबू से 500 रुपये उधार लिए थे। वर्षो बाद जब वह ऋण चुकता नहीं कर सके, तो आत्मग्लानि में उन्होंने घाटशिला स्थित अपना घर विभूति बाबू को समर्पित कर दिया। यही घर आगे चलकर गौरीकुंज बना, और यहीं 1 नवंबर 1950 को विभूति बाबू ने जीवन की अंतिम सांस ली।

घाटशिला की गोद में साहित्यिक चमत्कार

वर्ष 1928 में प्रकाशित उनका उपन्यास “पथेर पांचाली” भारतीय साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित हुआ। इस पर जाने-माने फिल्म निर्माता-निर्देशक सत्यजीत रे द्वारा निर्मित फिल्म को 1995 में ‘सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म’ घोषित किया गया। यह उपन्यास घाटशिला की प्रेरणादायी प्राकृतिक छटा के बीच लिखा गया, जो न केवल उस समय की ग्रामीण जिंदगी का दस्तावेज है, बल्कि आज भी पाठकों के मन को छू जाता है।

लेखनी की विरासत एवं संरक्षण का केंद्र ‘विभूति स्मृति संसद’

घाटशिला कॉलेज रोड स्थित ‘विभूति स्मृति संसद,’ विभूति बाबू के जीवन और साहित्य से जुड़ी धरोहरों को संजोए हुए है। इस पुस्तकालय में न केवल उनकी कृतियां संरक्षित हैं, बल्कि उनके जीवन के विभिन्न पड़ावों से जुड़ी दुर्लभ तस्वीरें और संस्मरण भी संजोए गए हैं। यहां दूर-दूर से साहित्य प्रेमी और शोधार्थी आते हैं, जो विभूति बाबू के व्यक्तित्व और कृतित्व से साक्षात्कार कर पाते हैं।

मातृभाषा व साहित्य को समर्पित ‘अपूर पाठशाला’

वर्ष 2018 में गौरी कुंज उन्नयन समिति के अध्यक्ष तापस चटर्जी एवं सदस्यों के अथक प्रयास से गौरीकुंज परिसर में ‘अपूर पाठशाला’ की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य बच्चों में मातृभाषा बांग्ला के प्रति प्रेम और साहित्य के प्रति रुझान को प्रोत्साहित करना है। यहां सेवानिवृत्त शिक्षक, प्राध्यापक और साहित्य प्रेमी बच्चों को पढ़ाते हैं। विभूति बाबू की रचनाएं यहां के विद्यार्थियों के लिए पठन सामग्री ही नहीं, बल्कि साहित्यिक संस्कार का स्रोत भी हैं।

स्मृति और प्रेरणा का संगम ‘गौरीकुंज’

आज का ‘गौरीकुंज’, भले ही नए भवन का रूप ले चुका है, लेकिन उसमें बसी विभूति बाबू की स्मृतियां और उनकी रचनात्मक ऊर्जा आज भी महसूस की जा सकती हैं। गौरीकुंज उन्नयन समिति इस स्थल की देखरेख करती है। प्रति वर्ष लगभग 40 हजार से अधिक पर्यटक यहां विभूति बाबू के जीवन से जुड़े दृश्यों का अवलोकन करने आते हैं। समिति के सदस्य आगंतुकों को विभूति बाबू के जीवन से जुड़े प्रसंगों और लेखनी की यात्रा से अवगत कराते हैं। बहरहाल, विभूति भूषण बंदोपाध्याय की कर्मभूमि घाटशिला, न केवल उनके साहित्यिक जीवन की साक्षी है, बल्कि भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण का भी प्रेरणास्त्रोत बन चुकी है। जन्मभूमि भले ही उन्हें जन्म दे, पर उनकी साहित्यिक आत्मा का सच्चा घर गौरीकुंज ही है, जहां उनकी रचनाएं आज भी जीवंत हैं। यहां संजोई गई उनकी स्मृतियां आने वाली पीढ़ियों को निरंतर प्रेरित करती रहेंगी।

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