इंटरटेनमेंट डेस्क : एक्टर-सिंगर दिलजीत दोसांझ स्टारर ‘पंजाब 95’, जो एक पॉलिटिकल थ्रिलर है, को लेकर बीते 3 सालों से बवाल चल रहा है। फिल्म तब से चर्चा में है, जब से फिल्म को फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सामने सर्टिफिकेशन के लिए सबमिट किया गया था। वजह है इस फिल्म की कहानी, जो कि जसवंत सिंह कालरा पर आधारित है। रियल लाइफ कैरेक्टर और पॉलिटिक्स के मिश्रण वाली यह फिल्म कालरा की रहस्यमयी मृत्यु के कारण चर्चा में है। ऐसे में फिल्म देखने से पहले यह जानना जरूरी हो जाता है कि कौन थे जसवंत सिंह कालरा।
जसवंत सिंह कालरा
जसवंत सिंह कालरा एक ऐसे परिवार से आते थे, जो अपनी मानवाधिकार सक्रियता के लिए जाने जाते रहे हैं। उनके दादा, हरनाम सिंह, ग़दर आंदोलन के एक कार्यकर्ता थे। (एक शाखा जिसने विदेशों से भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था)
उग्रवाद के दौरान पंजाब पुलिस की अवैध गतिविधियों पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के कालरा के प्रयासों के कारण 6 सितंबर, 1996 को पंजाब पुलिस के अधिकारियों ने उनका अपहरण कर लिया। कई गवाहों द्वारा उनकी गिरफ्तारी की गवाही देने के बावजूद, पंजाब पुलिस के महानिदेशक कंवर पाल सिंह गिल ने कालरा को कभी गिरफ्तार करने या हिरासत में लेने से इनकार किया।
खबरों के अनुसार, कालरा की बाद में हत्या कर दी गई थी और उसकी हत्या के आरोपियों पर 18 दिसंबर, 2005 तक 10 सालों तक आरोप नहीं लगाया गया था। जब पंजाब पुलिस के छह अधिकारियों को दोषी ठहराया गया था। कई वर्षों की कानूनी कार्यवाही के बाद, 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने आतंकवाद के दौरान पंजाब पुलिस के अत्याचारों की आलोचना करते हुए आजीवन कारावास की सजा के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया।
जसवंत की पत्नी परमजीत कौर ने अपने पति के हत्यारों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी है और खुद एक प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।
पंजाब’95 फिल्म का कॉंट्रोवर्शियल सब्जेक्ट
‘पंजाब-95’ एक प्रमुख सिख मानवाधिकार कार्यकर्ता, जसवंत सिंह कालरा की बायोपिक है, जिन्होंने पंजाब पुलिस से जुड़े लगभग 25,000 अवैध हत्याओं और दाह संस्कार से जुड़े अपने शोध के लिए वैश्विक ध्यान आकर्षित किया। यह बताया गया है कि पुलिस ने अपने 2000 कर्मियों को भी मार डाला, जिन्होंने परियोजना में सहयोग करने से इनकार कर दिया।
कालरा पंजाब में आतंकवाद के दौर के दौरान अमृतसर में बैंक निदेशक थे। 90 के दशक में ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद पंजाब के अस्थिर दौर में पंजाब पुलिस के पास किसी भी कारण से संदिग्धों को हिरासत में लेने की पर्याप्त शक्ति थी। पंजाब पुलिस पर कथित तौर पर फर्जी गोलीबारी में निहत्थे संदिग्धों की हत्या करने और हत्याओं को कवर करने के लिए हजारों शवों को जलाने का आरोप लगाया गया था।
जसवंत कालरा ने सबूत और गवाहों के बयान जुटाकर इस मामले की जांच शुरू की औऱ फिर बाद में पूरे मामले को सार्वजनिक कर दिया। कालरा ने शुरू में लापता हुए कुछ साथियों की तलाश शुरू की। यह उनकी जांच के दौरान था कि उन्हें कई अन्य लोगों की फाइलें मिलीं, जो पंजाब के अन्य जिलों में मारे गए थे और बाद में जला दिए गए थे। लिस्ट में ऐसे हजारों लोगों के नाम शामिल थे। डेटा को बाद में भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वेरिफाई भी किया गया था।