तेरे टूटने से मैं बिखरने लगती हूं
जैसे तेरे खुश होने से मैं संवरने लगती हूं
तेरे दूर होने से मैं मरुस्थल-ए-रेत होने लगती हूं
जैसे तेरे पास आने से मैं दरिया की आब होने लगती हूं
तेरे जाने से मैं कांच के सपनों सी बिखरने लगती हूं
जैसे तेरे आने से मैं ख्वाब से हकीकत होने लगती हूं
मैं टूट कर संगम की रेत सी बिखरी रहती हूं
जब तुम समेटते हो तो मैं इलाहाबाद सी होने लगती हूं
मैं सरयू की दरिया सी बहती रहती हूं
जब तुम देखते हो तो मैं कल कल नदियां सी खिलती रहती हूं
मैं संगम की धारा में बैठी रहती हूं
जब तुम आते हो संगम के हंसी तट पे तो मैं लहर बनके तेरे अधरों को छूती रहती हूं
मुझे छूते ही तुम सुबह -ऐ-बनारस होने लगते हो और मैं अवध-ऐ-शाम सी ढलने लगती हूं
मुझे पाकर तुम प्रयागराज होने लगते हो और मैं इलाहाबाद सी तुममें समाने लगती हूं
श्वेता सिंह विशेन,
देवरिया, उत्तर प्रदेश
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